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कविता

पुरानी टिहरी यादों में

अंकिता रासुरी


बाँध के पानी में तलाशती मेरी आँखें
कब के डूब चुके घंटाघर और
राजमहल की सीढ़ियों से फिसलते पैरों के निशानों को
धुँधली पड़ चुकी स्मृतियों की दुनिया से
फिर भी चला आता है कोई चुपचाप कहता हुआ
यहीं कहीं ढेरों खिलौनों की दुकानें पड़ी हैं
सिंगोरी मिठाई से के पत्ते यहीं कहीं होंगे बिखरे हुए
रंगबिरंगी फ्रॉक के कुछ चिथड़े जरूर नजर आ रहे तैरते हुए
बाँध के चमकीले पानी में
एक बचपन और जवानी को जोड़ते हुए

2.
पानी को देखती हूँ
और मेरी कल्पनाएँ पसारने लगती हैं पाँव
एक खूबसूरती तैर जाती हैं आँखों के कोरों पर
चलती सूमो से नीचे की ओर निहारती नजरें
डूब जाना चाहती हैं
पानी में टिमटिमाते तारों से प्रकाश में
ओह यह कितना बड़ा छलावा है
पूरी एक सभ्यता को डुबो चुके इस पानी में
भी दिखने लगता है जीवन


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